जम्मू-कश्मीर में अभी-अभी ख़त्म हुए लोकसभा चुनावों में, मतदाताओं ने काफ़ी बड़ी संख्या में वोट डाला। इस क्षेत्र का इतिहास उथल-पुथल भरा रहा है, और इतनी बड़ी संख्या में वोट पड़ना एक बड़े बदलाव को दर्शाता है।
कई साल से यह क्षेत्र हिंसा, संघर्ष और राजनीतिक अशांति का केंद्र रहा है, लेकिन इस बार के चुनाव में मतदाताओं की अच्छी-ख़ासी भागीदारी के साथ एक बड़ा बदलाव देखा गया और वे लोकतांत्रिक तरीक़ों से अपनी आवाज उठाने के लिए बेताब दिखाई दिए।

यह बदलाव जम्मू-कश्मीर की अनंतनाग-राजौरी लोकसभा सीट में 25 मई को हुए चुनाव में साफ़ तौर से देखा गया। भारत के चुनाव आयोग के अनुसार, अनंतनाग-राजौरी लोकसभा सीट पर 54.46% मतदान दर्ज किया गया---यह साल 1989 के चुनावी मतदान के बाद सबसे ज़्यादा है। 

जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर और बारामूला इलाकों में भी रिकॉर्ड मतदान दर्ज हुआ। भारत के चुनाव आयोग के अनुसार, श्रीनगर में जहां 38.49% मतदान दर्ज हुआ, वहीं बारामूला में 59.1% मतदान दर्ज हुआ, जो पिछले कई दशकों में सबसे ज़्यादा है।

चुनाव में कई दिलचस्प नज़ारे भी सामने आए: क्रिकेटरों ने वोट डालने के लिए अपना मैच रोक दिया, कट्टरपंथी अलगाववादियों और सक्रिय आतंकवादियों के परिवार वालों ने इस लोकतंत्र के पर्व का सम्मान किया, और 100 साल से ऊपर के बुजुर्ग व्यक्तियों और दिव्यांग लोगों ने मतदान केंद्रों तक पहुंचने के लिए कठिनाइयों का मुक़ाबला किया।

पिछले कुछ सप्ताह के दौरान, घाटी के कार्यालयों, बाजारों, घरों, कैफे और बाक़ी जगहों में उम्मीदवार, नीति और मतदान को लेकर चर्चा छाई रही, जिसने अलगाववादियों और आतंकवादियों को बैकफुट पर धकेल दिया। चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों और उनके समर्थकों ने इस बात पर ज़ोर डाला कि लोग बैलेट के ज़रिये अपना गुस्सा व्यक्त करें।

राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों और विश्लेषकों ने चुनाव के इस शांतिपूर्ण माहौल की सराहना की है, जो चुनौतियों के बावजूद लोकतंत्र की ताकत को दर्शाता है। विशेषकर अशांति झेल चुके क्षेत्रों में दर्ज हुए अच्छे मतदान प्रतिशत ने शांति, स्थिरता और समावेशी विकास की आकांक्षा का संकेत दिया।

राजनीतिक विश्लेषक इस मतदान प्रतिशत को मोदी सरकार की मज़बूत नीतियों और नेतृत्व के रूप में देख रहे हैं। अनुमान है कि ये चुनाव परिणाम कश्मीर की राजनीतिक तस्वीर पर बड़ा असर डालेंगे, और  शांति, विकास और सुलह की दिशा में चल रहे प्रयासों में मदद करेंगे।

पिछले चुनावों में मतदान प्रतिशत

पिछले चुनावों अक्सर हिंसा, बहिष्कार और कम मतदान से प्रभावित होते थे, पर इस बार कश्मीर घाटी की सभी तीन लोकसभा सीटों पर 50% से ज़्यादा मतदान हुआ, जो 2019 लोकसभा चुनाव के 19.16% मतदान से काफ़ी ज़्यादा है। यह उत्साह अलग-अलग आयु वर्ग के लोगों में भी देखा गया। युवा और पहली बार मतदान कर रहे लोगों ने अपने क्षेत्र के भविष्य को संवारने में गहरी दिलचस्पी दिखाई।

1996 के लोकसभा चुनावों के बाद से कश्मीर के कुल मतदान प्रतिशत में काफी अंतर दिखा है। 1996 में 40.94% मतदान दर्ज किया गया था, जो 1998 में तेज़ी से घटकर 30.06% हो गया था। इसके बाद, 1999 में इसमें और गिरावट आई और यह 11.93% तक पहुंच गया था। हालांकि, 2004 के चुनावों में यह ट्रेंड बदला और 18.57% मतदान हुआ।

इसके बाद, साल 2009 और 2014 में वापस उछाल आया और क्रमशः 25.55% और 25.86% मतदान दर्ज किया गया, जो तुलनात्मक रूप से एक अच्छी मतदाता भागीदारी थी।

हालांकि, 5 अगस्त 2019 के बड़े फ़ैसले से कुछ महीने पहले मतदान प्रतिशत फिर से कम हो गया। ये उतार-चढ़ाव अलग-अलग सामाजिक-राजनीतिक कारणों और क्षेत्रीय राजनीती के असर से बदलने वाली मतदाता भागीदारी को रेखांकित करता है।

सुरक्षा व्यवस्था में बेहतरी 

पूर्व जम्मू और कश्मीर राज्य को अनुच्छेद 370 के तहत मिलने वाले विशेष दर्जे को निरस्त कर दिया गया था। इसके लगभग पांच साल बाद, अक्सर अस्थिर रहने वाले इस क्षेत्र की सुरक्षा व्यवस्था में एक बड़ा बदलाव देखा गया है।

इस बदलाव से न सिर्फ शांति बहाल हुई, बल्कि क्षेत्र के लोगों में एक नया आत्मविश्वास भी पैदा हुआ। यही वजह रही कि लोकसभा चुनावों में भारी मतदान दर्ज हुआ।

अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा रद्द करने के फ़ैसले के बाद अनिश्चितता और उम्मीद का एक मिला-जुला रूप सामने आया। कुछ लोगों ने हिंसा में बढ़ोतरी की आशंका ज़ाहिर की, तो बाक़ी लोगों ने इसे समावेशन और विकास की दिशा में एक बड़े फ़ैसले के रूप में देखा। समावेशन और विकास की यह भावना आज ज़ोर पकड़ती दिख रही है, जैसा कि इस लोकतांत्रिक पर्व में कश्मीरियों की उत्साह-भरी भागीदारी से पता चलता है।

पहली बार वोट डाल रहे कई लोगों ने कहा कि जब अनुच्छेद 370 को निरस्त किया गया था तो शुरू में उनके मन में डर पैदा हुआ था, लेकिन अपने बच्चों को सड़कों पर आज़ादी से खेलते हुए और व्यवसायों को फिर से खुलते हुए देखने के बाद, उनके मन में जम्मू-कश्मीर के विकास को लेकर भरोसा पैदा हुआ है। यह भरोसा 2019 के बाद से अब तक क़ायम है। क्षेत्र की सुरक्षा स्थिति का सामान्य होना उनके लिए मतदान करने का एक बड़ा कारण बना।

अलगाववादी मुख्यधारा से जुड़ने के लिए तैयार

इस भारी मतदान का विधानसभा चुनावों और क्षेत्र की स्थिरता पर बड़ा असर पड़ सकता है। कुछ महीने बाद विधानसभा चुनाव होने की संभावना है। कश्मीर में तीन दशकों से भी ज़्यादा वक़्त तक, पाकिस्तान से फंडिंग लेने वाले और उनके इशारों पर चलने वाले अलगाववादी नेता लोगों को मतदान से दूर रहने की धमकी देते थे।

लेकिन अब न सिर्फ हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष और कश्मीर के धार्मिक प्रमुख मीरवाइज उमर फारूक का कहना है कि वे चुनाव के खिलाफ नहीं हैं, बल्कि कट्टरपंथी संगठन जमात-ए-इस्लामी और कश्मीर के नेताओं ने भी लोकसभा चुनाव में खुलकर मतदान किया।

सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक संगठन "जमात" के प्रमुख गुलाम कादिर वानी ने हाल ही में इच्छा ज़ाहिर की थी कि अगर सरकार उनके संगठन पर लगा प्रतिबंध हटा दे तो वह चुनाव में हिस्सा लेंगे. उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं को वर्तमान लोकसभा चुनावों और आगामी विधानसभा चुनावों में मतदान करने के लिए भी प्रोत्साहित किया।

अपने पहले के रुख़ से यू-टर्न लेते हुए उन्होंने साफ़ तौर से कहा कि "जमात" ने हमेशा आतंकवाद का विरोध किया है, लोकतंत्र का समर्थन किया है और अब उनका इरादा जम्मू-कश्मीर में शांति बहाल करने का है।

युवाओं के लिए मतदान करना सम्मान की बात 

कई साल तक, जम्मू-कश्मीर के लोगों को वोट डालने में डर लगता था और वोट डालने वाले लोगों का अक्सर बहिष्कार किया जाता था। उन्हें राजनीतिक जटिलताओं और संघर्ष में फंसे समाज द्वारा अलग-थलग किया जाता था।

लेकिन जैसे ही लोकसभा चुनाव शुरू हुए, विशेषकर युवाओं ने मतदान से जुड़े डर और झिझक को चुनौती देने का फ़ैसला किया। 13 मई को जम्मू-कश्मीर में चरणबद्ध मतदान शुरू होने के बाद से,  सोशल मीडिया पर समाज के सभी वर्गों - छात्रों, शिक्षकों, किसानों और दुकानदारों - की स्याही लगी उंगलियों वाली तस्वीरों और वीडियो की बाढ़ आ गई।

जम्मू-कश्मीर की उतार-चढ़ाव भरी राजनीतिक यात्रा में अब एक नया अध्याय लिख दिया गया है। लोगों की उंगलियों पर लगी स्याही एक उज्ज्वल भविष्य लिखने के लिए तैयार कलम की स्याही का प्रतीक है। अतीत में हावी रहने वाले डर और झिझक के उलट, लोकतंत्र का पर्व अब आज़ादी और गर्व से मनाया जा रहा है।

सफल समापन 

लोकसभा चुनावों के सफल समापन ने जम्मू-कश्मीर के लोगों में उत्साह की एक नई लहर पैदा कर दी है, जिससे आगामी विधानसभा चुनावों के लिए नए सिरे से लक्ष्य और आशावाद की भावना पैदा हुई है।

चुनावों के शांतिपूर्ण और व्यवस्थित संचालन से पैदा हुई सशक्तिकरण की भावना, विधानसभा चुनावों के लिए बढ़ती उम्मीद में तब्दील हो गई है।

लोकसभा चुनावों से जगी आशा हमें इस बात का स्मरण कराती है कि लोकतंत्र सबकी भागीदारी से पनपता है, और हरेक वोट मायने रखता है। इसके अलावा, मतदाताओं की आशावादी सोच और मतदान में भारी भागीदारी के रूप में देखा गया यह बदलाव, जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक परिपेक्ष पर बड़ा असर डाल सकता है।

यह बदलाव राजनीतिक दलों को वक़्त के साथ चलने की चुनौती देता है, और साथ ही मतदाताओं के साथ जुड़ने, साफ़ नीतियां तय करने और ज़रूरी मुद्दों पर बात करने की प्रतिबद्धता पर ज़ोर देता है।

***लेखक कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार हैं; इस लेख में व्यक्त विचार उनके अपने हैं